नीचे जो आप पढ़ेंगे उसे एक शहीद की बेटी ने लिखा है. 16 साल पहले उनके पापा करगिर वॉर में शहीद हो गए थे. टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने वाली तस्वीर में आपने उन्हें नहीं देखा. लेकिन वो इस लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा थे. दीक्षा द्विवेदी ने मूल लेख अंग्रेजी में लिखा था, लल्लनटोप. कॉम ने इसका अनुवाद हिंदी में किआ। हम इसे आपसे साझा कर रहे हैं।
ये आर्टिकल लिखना एक मुश्किल फैसला था. लेकिन मेरे पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है. मैं जितनी बार उनके नाम की प्लेट अपने नोटिस बोर्ड पर सफाई से चिपकी हुई देखती हूं, उतना ही ज्यादा गुस्सा आता है. कितनी आसानी से आप उन्हें भूल गए. काली प्लेट पर सफ़ेद अक्षरों में लिखा है- CB DWIVEDI. कैपिटल लेटर्स में. हिंदी, अंग्रेजी दोनों में.
हर साल करगिल की लड़ाई के हीरोज की कहानियां पढ़ती हूं. लेकिन आज तक उनका नाम नहीं देखा कहीं. यकीन मानिए, मैंने 16 साल इंतजार किया है. उन्हीं की वजह से आज मैंने पत्रकारिता को चुना है. उन्हीं की वजह से मैं आज समाज में बदलाव लाना चाहती हूं, बदले में बिना कुछ पाने की उम्मीद किए. इसलिए उनकी कहानी आज आप सुनेंगे. मेरी कलम से.
उनका जीवन खाली नहीं गया. और बेहतर होगा कि आप उनका शुक्रिया अदा करें. उनकी वजह से आज आप जिंदा हैं.
आर्मी एक पेशा है. बल्कि पेशे से बढ़कर है. ये जीने का एक तरीका है. ये उसी तरह है जैसे किसी को लाखों की नौकरी देकर कहो, ‘दोस्त, तुम किसी भी दिन मर सकते हो.’ और लाखों रुपयों के लिए भी उस नौकरी को कोई नहीं चुनेगा.
आर्मी को अपना पेशा मानने में बहुत हिम्मत लगती है. अकादमी में घुसने के बाद भी आपके पास हथियार न उठाने का विकल्प होता है. ‘हां, मैं अपने देशवासियों के लिए गोली खाऊंगा’, ये फैसला लेने के लिए जिगरा चाहिए होता है. और मेरे पापा ने वही किया. आर्टिलेरी को चुना.
उन्होंने 18 साल तक आर्मी को अपनी सेवाएं दीं. आज आप इतने समय में कर्नल बन जाते हैं. मैं सोचती हूं वो आज अगर हमारे साथ होते तो कैसा होता. मेजर सीबी द्विवेदी, एक ऐसा अफसर जिसके पास युद्ध के समय पलक झपकाने की भी फुर्सत न थी, वो अपने परिवार को ख़त लिखना कभी न भूलते थे. झूठ-मूठ लिखते कि वो ठीक हैं, लड़ाई के समय भी. मां को लिखी हुई उनकी आखिरी चिट्ठी कुछ ऐसी थी:
डिअर भावना,
स्वीट किस.
[…]
टीवी पर दिखाई गई बहुत सारी न्यूज सही होती है. पर बहुत सी फर्जी भी होती है. इसलिए उसपर पूरी तरह यकीन मत करना. भगवान पर भरोसा रखना. […]
ये उनके शहीद होने के दो दिन पहले लिखा गया ख़त था. पापा पूरी तरह से पारिवारिक आदमी थे. और मां तो जैसे घर की बॉस थीं. पापा के लाड़ ने उन्हें बिगाड़ रखा था. श्रीनगर से फोन करते तो कहते, ‘छोटा बेबी कहां है.’ और हम मम्मी को बुला लाते. ये मतलब नहीं कि वो प्यारे पापा नहीं थे. हमेशा हमारे एग्जाम के आस-पास छुट्टियां लेते. हम उनपर इस तरह निर्भर थे, कि मेरी बहन तो उनके बिना एग्जाम की तैयारी कर ही नहीं सकती थी.
मैं आज तक समझ नहीं पाई कि लड़ाई के दिनों में भी वो इतने शांत कैसे रहते थे अपनी चिट्ठियों में. मुझे याद है, वो सैटेलाईट फ़ोन से कॉल कर बुरे मौसम के बारे में बताते थे. उनके जैसे निस्वार्थ आदमी से मैं आज तक नहीं मिली. उनके जैसा कोई लड़का मिल जाए तो मैं उससे शादी कर लूं.
युद्ध के समय हर यूनिट की ड्यूटी नहीं लगती. करगिल की लड़ाई के समय आर्टिलेरी और इन्फेंट्री की ड्यूटी थी. ‘गनर’ आर्टिलेरी का हिस्सा होते हैं. और मेजर सीबी द्विवेदी को अपने गनर होने पर गर्व था. वो एक आर्टिलेरी गन के ऊपर बैठते. आर्टिलेरी गन यानी तोप जितनी बड़ी गन. बिना डरे दुश्मनों का सामना करते हुए. शाम से सुबह तक दुश्मनों पर आग के गोले बरसाते हुए. हां, करगिल की लड़ाई ऐसे ही लड़ी गई थी. जब पूरा देश चैन की नींद सो रहा होता था, इंडियन आर्मी अपनी ड्यूटी कर रही होती थी.
मुझे आज भी याद है, वो 14 मई 1999 की सुबह थी, जब 315 फील्ड रेजिमेंट को द्रास में तैनात किया गया था. ये लड़ाई हम सब के लिए शॉक की तरह आई थी. देश के इतिहास की ये सबसे अनपेक्षित लड़ाई थी. मैं मां और बहन के साथ गर्मी की छुट्टियों में उनसे मिलने गई थी. और हमें उनके साथ सिर्फ 12 घंटे बिताने को मिले. मां को लिखी हुई एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा था: भले ही हमारी मुलाकात छोटी थी, लेकिन तुमसे मिलकर अच्छा लगा. मैं जल्द ही तुम लोगों से मिलूंगा.’
पर कड़वा सच तो ये है कि हम फिर उनसे कभी नहीं मिले. अगर हमें मालूम होता कि हम आखिरी बार मिल रहे हैं, हम शायद उनकी मेस में लंच और डिनर करने के अलावा और बहुत कुछ करते. मेरे पापा असली रोमैंटिक थे. असली कॉमेडियन. और कभी-कभी असली शेफ. वो एक सच्चे पिता थे. लेकिन उसके पहले, एक सच्चे सिपाही. उनके जवान उनसे बहुत प्यार करते थे. क्योंकि वो कभी उनकी उम्मीदें गिरने नहीं देते थे. जबतक वो 315 के साथ रहे, उनके यूनिट में केवल दो कैज़ुअल्टी हुईं.
315 पहली आर्टिलेरी यूनिट थी जिसे लड़ाई में उतारा गया. पापा सेकंड-इन-कमांड थे. ऑपरेशन विजय मुश्किल था, खासकर इनफॉर्मेशन की कमी की वजह से. हमारे देश में उन कायरों का आम आदमी की तरह घुसना एक अप्रत्याशित गतिविधि थी.
पहले दिन जब रेजिमेंट द्रास में पहुंची, उनपर आग बरसने लगी. मेरे अंकल कर्नल उपाध्याय, जो पापा के आखिरी वक़्त में उनके साथ थे, बताते हैं कि उन्हें बिलकुल अंदाजा नहीं था कि दुश्मन कहां छिपे हैं. वो बताते हैं कि उस रात उन्होंने पापा से कहा था: ‘सर, हम बहुत बड़े खतरे के बीच हैं.’
दुश्मन कहां था, इसकी कोई जानकारी नहीं थी. आर्मी को युद्ध में बिना किसी प्लानिंग के उतार दिया गया था. एक तरफ तोलोलिंग था. और दूसरी तरफ टाइगर हिल और पॉइंट 4875. उन्हें बहुत प्लानिंग करते हुए आगे बढ़ना था.
पापा की यूनिट 1 नागा, 8 सिख, 17 जाट और 16 ग्रेनेडियर्स की मदद करती थी, जिन्होंने बाद में तोलोलिंग, पॉइंट 5140, ब्लैक टूथ, टाइगर हिल, गन हिल, महार रिज और द्रास में सांडो टॉप पर कब्ज़ा जमा लिया था. मेरे पापा की जिम्मेदारी थी आर्टिलेरी का सर्वे करना. वो रोज सुबह निकल जाते. ये देखने कि कौन सी यूनिट को कहां रोकने की जगह मिल सकती है. वाहन कहां पार्क किए जाएंगे. सब हथियार सही समय पर आ रहे हैं, फायरिंग ठीक हो रही है ये सब जिम्मेदारियां थीं उनकी. 14 से 31 मई सबे मुश्किल दिन थे. उस समय एक जगह फायर कर झट से दूसरी जगह शिफ्ट होना पड़ता.
जब भी पापा फ्री होते, मैप को देखा करते. और अगले कदम का प्लान बनाते. लेकिन वो चिट्ठियां फिर भी लिखते. चिट्ठियां लिखना वो कभी नहीं भूले. 315 के पास दो ऑप्शन थे. या रात भर अपने बंकरों में बैठ सुबह होने का इंतजार करो. या रात भर फायर करो. पापा ने दूसरा विकल्प चुना. और गनर्स के पास छुपने का विकल्प नहीं होता. उन्हें डटे रहना पड़ता है. अपनी गन के साथ. दुश्मन की आंख में आंख डाले. और मेरे पापा ने यही किया. बिना डरे.
हमारे विमानों को भी उस वक़्त मार गिराया जा रहा था. इसी समय स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा की जान गई थी. 27 मई थी तारीख. इंडियन आर्मी को सबसे बड़ा झटका था ये. लेकिन जो करना था, वो तो करना ही था.
मुझे याद है मैंने और मेरी बहन ने एक बार पापा को एक ऑपरेशन कमांड करते हुए देखा था. और हमारी हंसी ही नहीं रुक रही थी. वो दूर थे. और हमें एक पहाड़ी पर बैठकर देखने की इजाज़त दी थी. वो पीछे हाथ बांधे चलते जाते थे. पीठ ताने, एक असली सैनिक की तरह फौजियों को निर्देश देते. हम हंसते हुए कह रहे थे, देखो पापा बस ऑर्डर झाड़ते हुए टहल रहे हैं. उस समय हम ये नहीं समझ पाए थे कि वो कितने अच्छे लीडर हैं. उस दिन वो वापस आ गए थे. क्योंकि दुश्मन ने सफ़ेद झंडा दिखा दिया था. वो हमेशा विजेता रहे थे.
वो 2 जुलाई की शाम थी, जब पापा को फिर से एक फैसला लेना था. कि फायरिंग करते रहें, या रुक जाएं. रुक जाते तो दूसरी इन्फेंट्री यूनिट को खतरा था. पापा ने पहला विकल्प चुना. बाहर निकले और फौजियों को लड़ने के लिए उत्साहित करते रहे. ये फैसला कठिन था. या खुद को बचाओ, या साथियों को. पापा ने साथियों को बचाना चुना. ये एक सैनिक के खून में भरा पागलपन होता है जो हम जैसे लोग समझ नहीं सकते. और मेरे पापा पागल थे.
वो अपनी गनर की पोजीशन में बैठे दुश्मनों का सामना कर रहे थे, जब एक बम उनके बगल में आकर गिरा. उन्हें बांह में चोट आई है, ये बात उन्हें पता थी. लेकिन जंग की गर्मी में कुछ भी पता नहीं चला. बांह में अंदर ही अंदर खून रिसता गया. पापा के अलावा 4 और गनर्स को जानलेवा चोटें आईं.
पापा कई जिम्मेदारियां उठाए हुए थे. उनका दिन रात 2.30 बजे शुरू हो जाता था. जब वो पहाड़ियों पर गाड़ी की बत्तियां बंद कर घुमते थे. 315 के हीरो भी जीतकर आए. उन्हें सम्मान भी मिला. लेकिन कभी वो नाम नहीं मिला. उन लोगों से जो उस वक़्त अपने घरों में सो रहे थे. वो आर्मी की रीढ़ की हड्डी की तरह थे, लेकिन उन्हें लोग याद नहीं करते.
टाइगर हिल आर्मी का आखिरी पड़ाव था. मेरे पापा वहां तिरंगा लहराते हुए नहीं देख पाए. पर मुझे यकीन है वो जहां भी थे, वो अपनी जीत महसूस कर सकते थे. वो इस जंग का एक जरूरी हिस्सा थे. और ये बात कोई भी मीडिया उनसे छीन नहीं सकता.
वो 2 जुलाई 1999 का दिन था, जब हमें ये खबर मिली कि हमारी दुनिया बिखर चुकी है. हम बच्चे थे तब. और मां बस 34 की. लेकिन आज जब कभी हम निराश होते हैं, उन्हें याद कर लेते हैं. 16 साल हो गए.
मेरे पापा, मेरे हीरो, मैं आपको सलाम करती हूं.
A big Salute to every army-man of India. A real story of a real hero.
Jai hind……the real heros
जय हिन्द
जय हिन्द कि सेना
one salute for CB DWIVEDI and for his team..really that would be very dangerous moment when the war was going on..
Sher ko kisi k naam ki jarurat nhi hoti… He was a real fighter a
nd true Indian. Proud to be Indian ..Jai Hind…god gives u strength and he will be very proud to have u as a daughter.
I remember that tym my father(Ex Army ) and his colleagues goes to Chandiha( His Native village ) for tributue him with honour of Reet. We will nvr forgot u sir. U r our real hero# Bravo
A very big salute to him. I have always remembered him as we were kids when this fight was happened, and we did hear about this sad news. Really a sad demise but we are proud that he is from our motherland Sitamarhi.
Hey dikhsa ….mai jab 7sal ka that jab mere papa me mughe apke papa ke bare me bataya tha….agar mai sahi hu to apka gao aur mera gao sata h(Asogi)may u know. In our district ek road h (bipas) Jo jaha se suru hota h us gate ka nam h major Chandra bhusan duwedi… Gate….mai jab bhi waha se pass hota hu ye nam mere dimag ghar kar jati h…mai hamesha se Army join karna chahta tha….bcz my whole maternal part is in army…but khuch wajaho se nhi kar paya but ye story padne ke bad Maine army join krne ki than li h……after my bachelor degree (MBBS) as a doctor. A gr8 salute to the real superstar of my district, my country.
A BIG SLUTE TO EVERY ARMY-MAN.REAL HERO OF MY COUNTRY. A VERY BIG SALUTE TO HIM.
Kargil ki larai ko nahi bhul sakte……… Aaj bhi ankhe nam ho jati hai….. Aapke Papa real hero the…. Aur aap unki Bahadur baitiya…. Aap Ne aek real hero ki kahani share ki so thanks…. Jai hind…. Jai bharat… Ashok chaudhary.. Sitamarhi from bihar….9818616138
I proud of our District Real Hero Major CB DWIVEDI. Jai Hind.