अप्पन बोली हम न बोलब
त आरो के बोलत.
अप्पन खजाना हम न खोलब
त दोसर के खोलत.
अप्पन बउआ के हम न कहब
त दोसरो बउआ न कहत.
जे पहचान बना देले हय सब
सब दिन सब तर उहे रहत.
जेतना मन है ओतना बोलू
एन्ने ओन्ने के बोली.
याद रखब कि होएत जे
जड़ काट फुनगी पर गेली.
अप्पन माई के परतर
जे दोसर से कईली.
घोबी के सवारी लेखा
केनहू के न रहली.
मराठी बोलइछइ मराठी
अमरीका में भी आके.
हम भूल जाई छी अप्पन बोली
दिल्ली में ही जाके.
अप्पन बोली अप्पन भाषा ऐना न बिसरा दू….
इत्ते इज्जत दू एकरा कि दोसर के शरमा दू…
पंखुड़ी .
ई कविता के पंखुड़ी दीदी से पूछ के हुनकर ब्लॉग से लेल गेल है. अहाँ सब हुनकर अलग अलग ब्लॉग फॉलो कर सकै छी . अभी अभी हुनकर ईगो किताब भी छपाई भेल हा. पढू आ हमरा पूरा भरोषा है की अहाँ सब के खूब पसंद आएत. हम्मर ई भी प्रयास रहत की दीदी अप्पन ई समाज के लेल कुछ समय निकाल के सीतामढ़ी.ओर्ग पर भी अप्पन विचार रख्तन.
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