एक नाटककार, अभिनेता और आर्किटेक्ट से मुलाकात | अभिषेक शर्मा.
पटनबीट्स द्वारा पूर्व प्रकाशित।
अभिषेक शर्मा, ललका गुलाबपटना के ईस्ट बोरिंग कैनाल रोड में एक आर्किटेक्ट का ऑफिस है “प्रयोग”। वहां आर्किटेक्ट अभिषेक शर्मा जी बैठते हैं। जब पहली बार उनसे मिली थी तो कभी नहीं सोचा था उस गंभीर चेहरे के पीछे एक अभिनेता भी छुपा हुआ है। फिर जल्दी ही कालिदास रंगालय में जब अभिषेक जी को “उगना रे मोर कतः गेला” में रेणु जी के रूप में सजीव देखा तो यकीं ही नहीं हुआ की ये वही आर्किटेक्ट है जिसे मैंने “प्रयोग” के ऑफिस में बेचैनी में काम करते हुए देखा था। उस नाटक के बाद मैंने उनकी फिल्म “नया पता” भी देखी जो एक बहुत संवेदनशील मुद्दे पर बनी हुई थी और उस फिल्म को बनाने में भी उतनी ही संवेदनशीलता बरती गयी थी। यह फिल्म भोजपुरी की पहली क्राउड फंडेड फिल्म थी और इसे काफी सराहना मिली थी। इस फिल्म में अभिषेक शर्मा जी एक ऐसे व्यक्ति को जी रहे थे जो अपनी पूरी ज़िन्दगी रोजी रोटी की मजबूरियों में दिल्ली में बिता देता है। और जब वो वापस अपने घर छपरा आता है तो वहां सबकुछ ख़त्म हो चुका होता है। हमारे जैसे लोग जो ऐसी ही अपने प्रदेश से दूर हैं इस कहानी को खुद जो जोड़ कर देख सकते हैं और सोचने पर मजबूर हो सकते हैं।
हाल में अभिषेक जी की नयी लघु फिल्म रिलीज़ हुई “ललका गुलाब”। फिल्म से न सही पर इसके नाम से तो आप सब बेशक रूबरू हुए होंगे। “ललका गुलाब” की पटकथा, निर्देशन और अभिषेक जी का अभिनय तीनो ही कमाल के हैं। हाल ही में उनसे बात हुई, सच मानिये उनकी अभिनय यात्रा सिर्फ उनकी अभिनय यात्रा नहीं बल्कि पटना के रंगमच की यात्रा है। पेश है अभिषेक की जी से हुई वार्ता के कुछ अंश:
मैं : अपनी अभी तक की अभिनय यात्रा के बारे में कुछ बताएं।
शर्मा जी : मैं जब 6 महीने का था तब माता पिता जी के साथ पटना आया था और मेरे पिताजी पटना आर्ट्स कॉलेज में कला शिक्षक थे। बाद में माता जी ने भी वहां से कला की शिक्षा ग्रहण की। जब मैं 4-5 साल का था तब यहां बिहार में खासकर पटना में शाम को मनोरंजन का कोई ख़ास साधन नहीं था तो हमलोग थियेटर जाया करते थे। हमारे यहां थिएटर का एक ग्रुप था अरंग उसमें एक बच्चे की जरूरत थी। तो 4 साल की उमर में मैंने अपना पहला नाटक किया जिसका नाम था “कूड़े का पीपा” जिसके निर्देशक थे राधेश्याम तिवारी। मेरे माता जी के परिवार में रास मंडली का कारोबार था। पूरे ब्रजमंडल की सबसे पुरानी रास मंडली मेरे नानाजी चलाते थे तो संभवतः अभिनय मुझे अपने परिवार से ही मिलाथा। उसके बाद में 1972 में सतीश आनंद जिनको बिहार के रंगमंच का पितामह कहा जाता है उनके डायरेक्शन में अंधायुग किया। माताजी थियेटर जाती थी तो हमें कहां छोड़ कर जाती। इसलिए हम भी साथ जाते थे। पूरा बचपन खेलकूद से ज्यादा रिहर्सल देखने में बीता है जाहिर सी बात है तभी से अभिनय का नशा हुआ जो लगातार चलता रहा उसके बाद जब बड़ा हुआ तो नाटक करता रहा फिर जब मैं कॉलेज में आया तब तक बहुत सारी संस्थाएं थी। यहां कला संगम संस्था लगभग खत्म होने पर थी सतीश जी दिल्ली चले गए थे ।उसके बाद हमने कालिदास संग्रहालय में काम करना शुरू किया। हफ्ते में 5 दिन दो-तीन साल तक एक ही नाटक चलता था । हम लोगों ने काबुलीवाला और मिनी का नाटक किया जिसमे जिस में मैं, मेरी माता जी नवनीत शर्मा, मेरे पिताजी श्याम शर्मा (माने हुए चित्रकार) और मेरी दोनो छोटी बहने पल्लवी और शैली भी एक्टिंग करती थी। यह सिलसिला 5-6 साल चलता रहा उसके बाद मैंने किरण कांत वर्मा जो उस समय के बड़े डायरेक्टर थे। उनके साथ भी लगातार काम किया राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पहले बैच के प्यारे मोहन सहाय जी के साथ काम करने का मौका मिला। उसके बाद मैं कॉलेज में गया कॉलेज में मेरा एडमिशन बी एम कॉलेज में एक्टिंग के आधार पर ही हुआ वहां एक्टिंग की एक सीट होती है। उसके बाद एक नये ग्रुप से मेरा सामना हुआ संजय उपाध्याय ,अशोक तिवारी जो आज भारतीय रंगमंच में महत्वपूर्ण नाम है उनके साथ कॉलेजों में पटना यूनिवर्सिटी को रिप्रेजेंट करता था। एन एन पांडे जी हमारी अगुवाई करते थे। उनके निर्देशन में एक नाटक हमने रुड़की विश्वविद्यालय में अंतर महाविद्यालय फेस्टिवल में किया था उसमें मैं बेस्ट एक्टर घोषित हुआ और संजय उपाध्याय बेस्ट डायरेक्टर घोषित हुए।1986 में मेरा एडमिशन आर्किटेक्चर में हो गया मैं बड़ौदा चला गया। वहां भी चुप नहीं बैठा, गुजराती नाटको में काम किया, कुछ नाटक डायरेक्ट किए। उसके बाद काम करने के लिए दिल्ली आ गया। मैं नौकरी करता था, मुझे लगा दिल्ली जैसे महानगर में मैं रंग मंच को समय दे पाऊंगा। 6- 7 साल अपने दिल्ली निवास में मैं कुछ भी नहीं कर पाया और वह छटपटाहट मेरे अंदर थी अचानक मुझे लगा कि मुझे तो प्रोफेशन और पैशन दोनों को जीना है इसलिए मैं दिल्ली छोड़कर वापस पटना आ गया। पटना आने के बाद मेरी माताजी बतौर निर्देशक काम कर रही थी ।उनके साथ मैंने कई नाटक किए। संजय उपाध्याय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पास आउट हो चुके थे और बहुत अच्छा काम कर रहे थे तो उनके साथ उनकी रंग संस्था निर्माण कला मंच में उनके साथ जुड़ा और तब से लगातार आजतक में रंगमंच करता रहा। एक बॉलीवुड एक्ट्रेस नीतू चंद्रा बचपन से हमारी पड़ोसी थी। उनकी माता जी को पता था कि मैं थियटर करता हूं जब मैं मुंबई में निर्माण कला मंच फेस्टिवल में गया वहां नीतू चंद्रा जी ने हमारा नाटक देखने के बाद मुझे पहला ब्रेक दिया था। उस समय नितिन चंद्रा “देशवा” का निर्माण कर रहे थे जिसमे मैंने काम किया।
एक बार हमलोग “देशवा” के प्रमोशन के लिए कहीं जा रहे थे तब नितिन चंद्रा के एक असिस्टेंट डायरेक्टर पवन के श्रीवास्तव ने अपनी कहानी मुझे सुनाई और लीड रोल मुझे ऑफर किया । यह फिल्म “नया पता” थी जिसे पीवीआर ने रेयर कैटेगरी में सिलेक्ट किया और इस फिल्म को रिलीज किया उसके बाद विदेशों में भी उसके शोज हुए । उसके बाद “सिंह साहब द ग्रेट” मेरी तीसरी फिल्म थी जिसे अनिल शर्मा बना रहे थे। वहां मैंने प्रकाश राज की के साथ काम किया। बाद में नया पता के लिए के लिए मुझे स्पेशल केटेगरी में बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी मिला। इसके बाद अविनाश दास जी ने मुझे अनारकली ऑफ आरा में रोल दिया। बहुत अच्छा सफर रहा। उसके बाद नितिन चंद्रा के एक असिस्टेंट डायरेक्टर अमित मिश्रा ने मुझे “ललका गुलाब” में लीड रोल दिया जो आज आपके सामने है। बस एक अफ़सोस रहा की इसमें मेरी आवाज नहीं है जिसका प्रभाव फिल्म पर दिख रहा हैं। खैर फिल्म को सराहना मिल रही है। इस तरह अभिनय और आर्किटेक्चर साथ साथ चलते रहे।