सीता माँ की मड़ई हैं अपना सीतामढ़ी.
26.6 ° उत्तर और 85.48° पूर्व,
हाँ ….सही हैं, बिल्कुल सटीक,
घबराइए नहीं …मैं कोई भूगोल का प्राध्यापक नहीं …
लड़कपन में गया था सीतामढ़ी, अपने गांव,
जवानी में फिर जा रहा हूँ,
जड़ों को अच्छे से पहचान लूँ,
इसलिए अक्षांश और देशान्तर बतला रहा हूँ……………
स्थितप्रज्ञ हो सुनो, चलो सुनाता हूँ एक कहानी,
था न कोई नृप-नरेश, न कोई रिपु विशेष,
वो थी त्रेता की महारानी|
जनक के शासन काल में,
लक्षमणा नदी के तीरों पर,
परा था तब भीषण अकाल,
प्राणदायनी जल के लिए प्रजा हो रही थी बेहाल|
वर्षा को फिर से धरा पे लाने को,
बेबस प्रजा की भूख प्यास मिटाने को,
हल कर्षण यज्ञ का अनुष्ठान हुआ;
मेघों का फिर आह्वाहन हुआ|
थामा जनक ने हल था तब,
जोतने को सम्पूर्ण धरा और नभ,
निकल पड़ा वो वैदेह, मिथिलेश,
अनवरत करने सब संभव|
सहसा हल की फाल टकराई,
किसी शिशु के क्रंदन की आवाज आयी,
देखा तो वहाँ एक मटका था,
हल में वही जा अटका था|
वो मटका फूटा और देवी का अवतरण हुआ,
इन्द्र के बढ़े मद का तब क्षरण हुआ,
आकाश मेघाच्छन्न हो बरस पड़ा,
धरती का उजड़ा दामन फिर हँस पड़ा |
नवजात शिशु के रक्षा हेतु,
राजाज्ञा से हुआ एक मड़ई(झोपड़ी) का निर्माण,
उस मड़ई में रखी गई वो देवी
देवता भी नतमस्तक हो कर रहे सम्मान |
वो जनकसुता, वो जानकी,
वो भूमिपुत्री, वो मैथली,
अद्वितीय थी वो सुन्दर काया.
धरती माता की थी वो जाया |
वो सीता माँ की मड़ई, ,
कालांतर में सीतामड़ी और फिर सीतामढ़ी हुई |
आओ सुनाये हम यह गाथा पीढ़ी -दर- पीढ़ी,
जितनी पावन सीता माता,
उतनी पावन, उनकी सीतामढ़ी |