लोहे पे दौड़ता लोहा,
चिंघाड़ता लोहा,
चला जा रहा था ……..
सिल्लीगुड़ी से दिल्ली |
मैं खिड़की के पास बैठी आश्वासित थी,
किंचित मात्रा भी आशंकित नहीं,
था जो मेरे पास मेरा कल्पवृक्ष,
छाया देने को मुझे हमेशा|
दिल्ली में जब ट्रेन रुकी,
तब देखा की सभी परिवार वाले मौजूद थे,
सब को साथ देख के एक पल अच्छा लगा
पर अचानक जैसे सब बिखर गया,
पता चला की वो कल्पवृक्ष अब नहीं रहा,
कह रहे थे सब की होगया वो मातृभूमि पे कुर्बान,
सुन रही थी वो होलाहल, जैसे बन बैठी थी एक अंजान|
माँ के आँशु अनवरत बहे जा रहे थे,
दीदी भी तो सर झुकाए सुबक रही थी,
क्या हो गया था अचानक ?
शायद आठ साल की वो उम्र छोटी थी,
पर एक बात अच्छे से समझ गयी थी,
मेरे पिता , मेजर चंद्रभूषण द्विवेदी शहीद हो गए थे,
वो अब वापस लौट के नहीं आने वाले |
उनका वो हॅसमुख चेहरा आज भी बदस्तूर सामने आ जाता हैं|
हृदय के चित्रपट पर उनकी वो मुस्कराहट आज भी उतनी ही सजीव हैं|
समझ सकती हुँ मैं अब उन्हें कभी देख न पाउंगी ,
परन्तु हमेशा सर उठा कर उनकी वीरता की गाथा गाउंगी|
मेरे शहीद पिता,
अगर आज आप होते तो दिखाती,
सीतामढ़ी के घर का वो चौड़ा अहाता, जो अब आपके बिना सुना हैं ………..
अब वो कंधे नहीं रहे,
अब वो गोद भी कहाँ,
जहा छुप के मैं,
खुद को बहलाती ,फुसलाती ,
अगर आप होते तो दिखलाती ,
चंडीहा के घर का का वो चौड़ा अहाता, जो अब आपके बिना सुना हैं ……….
आपकी याद में सबने ,
सीतामढ़ी में एक शहीद द्वार बनाया है ,
आपके वीरता को समर्पित कर,
हमने खुद का मनोबल बढ़ाया हैं|
उसके स्पर्श जैसे मैंने आपको,
खुद समीप पाया हैं |
काश ! ये सब आपको बतला पाती ,
अगर आप होते तो दिखाती,
हमारे दिल का वो चौड़ा अहाता, जो अब आपके बिना सुना हैं ………….
सीतामढ़ी जिले का हर वाशिंदा शहीद मेजर चंद्रभूषण द्विवेदी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हैं |
सीतामढ़ी के फेसबुक पेज एवं सीतामढ़ी.ऑर्ग के इस मंच से हम मत्रितुल्या भावना द्विवेदीऔर बहन स्वरुप दीक्षा द्विवेदी और नेहा द्विवेदी को भी सादर प्रणाम करते हैं.
‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’।
(या तो तू युद्ध में बलिदान देकर स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा विजयश्री प्राप्त कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।)