चर्चाओं में डूबा सीतामढ़ी लोकसभा कुल 3 भाग में प्रेषित होगा – भाग 1 में 1954 से लेकर 1996 का ज़िक्र है, भाग 2 में 1996 se 2024 और भाग 3 में वर्तमान लोकसभा चुनाव की चर्चा होगी।
1952 में मुज़फ़्फ़रपुर पूर्व में जाना जाने वाला लोकसभा वर्तमान में सीतामढ़ी लोकसभा है। परिसीमन के परिवर्तन को अगर थोड़ा सा नज़रअंदाज़ करें तो सीतामढ़ी शहर के इर्द गिर्द ही इस लोकसभा का क्षेत्र बना रहा। वर्तमान में सीतामढ़ी लोकसभा क्षेत्र में जिले का बथनाहा, परिहार, सुरसंड, बाजपट्टी, रून्नीसैदपुर और सीतामढ़ी समेत छह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं। इस लोकसभा की चर्चा की शुरुआत आचार्य कृपलानी से होती है, आज़ादी के दौर में कांग्रेस में होते हुए भी नेहरू के ख़िलाफ़ रहते हुए भी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1957 में सीतामढ़ी से उनका चुनाव लड़ना सीतामढ़ी के ऊपर एहसान के अलावा कुछ भी नहीं था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी की लहर पूरे देश के सिर्फ़ 19 लोकसभा में दिखायी दी थी। 19 लोकसभा सीटों में एक बदनसीब सीट सीतामढ़ी की भी थी।
शायद कृपलानी जी को सीतामढ़ी के चौहद्दी का भी पता ना रहा हो। नेहरू जी ने अपने बड़े दिल को दिखाते हुए सीतामढ़ी से कांग्रेस उम्मीदवार की उम्मीदवारी वापस ले ली। शायद यह भी सीतामढ़ी का एक दुर्भाग्य रहा। सीतामढ़ी से जो सभी सांसद हुए उनकी सूची नीचे विकिपीडिया के माध्यम से ले कर डाली गयी है। जिसमे नागेंद्र यादव जी की हैट्रिक बहुत महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण इसलिए नहीं कि उन्होंने हैट्रिक लगायी, महत्वपूर्ण इसलिए कि मण्डल आयोग और बी.पी.सिंह के जातिगत आरक्षण के दौर से पहले भी जाति और पार्टी के आधार पर 15 वर्षों तक नागेंद्र यादव सांसद बने रहे।
श्री नागेंद्र यादव।
“सिंहासन ख़ाली करो की जनता आती है ” के नारे के साथ जनता पार्टी 1977 में महंथ श्याम सुंदर दास ने अपनी जीत दर्ज जी और केंद्र में पहली बार ग़ैर कांग्रेस की सरकार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी । नागेंद्र यादव हमेशा लड़ाई में बने रहे।
महन्थ श्याम सुंदर दास।
कांग्रेस टूटने का मतलब होता है कांग्रेस की रक्षा के लिए एक नयी पार्टी का स्थापना होना। “इंडिया” अलायन्स आज की तारीख़ का जीता जागता उदाहरण है। तृणमूल कांग्रेस से लेकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, सभी विचारधारा से हटकर पहले तो कांग्रेस के ख़िलाफ़ लड़े और बाद में उनके ही रक्षक बन गये। ख़ैर, 1977 की टूटी हुई कांग्रेस पद के लोलुप्ता में फिर से एक हो रही थी। जनता दल के लिए सरकार चलाना आसान नहीं रहा और 1979 में फिर से चुनाव की स्तिथि बनी, चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और 1980 में फिर से लोकसभा का चुनाव हुआ। इस चुनाव की महत्वपूर्ण घटना जो याद रखने योग्य है कि सुरसंड राज के सर सी पी एन सिंह के पुत्र शशि शेखरेश्वर प्रसाद सिंह, जो की चर्चित पत्रकार नलिनी सिंह के पति भी थे, कांग्रेस के प्रत्याशी बने। पटना के रहने वाले बालिराम भगत को कांग्रेस से लोकसभा चुन के भेज दिये, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष चुनाव जीत गये, मगर हाई प्रोफाइल लोगों के कारण सीतामढ़ी फिर से हार गया।
श्री बलिराम भगत।
वैसे भी दोनों स्तिथि में हार ही होती, कांग्रेस प्रत्यासी भी आसपास के भूगोल को ना समझते थे ना समझने की कोशिश की। इस बात को कहने में पूरा विश्वास इसलिए भी है क्योंकि इस लेख को लिखने वाले लेखक के पर-नाना सुरसंड राज के प्रधान मंत्री के तौर पर लंबे समय तक काम करते रहे और उस परिवार से बहुत ही गहरा संबंध रहा। 1984 में राम श्रेष्ठ खीरहर लोकसभा के लिए चुने गये, अमघट्टा के रहने वाले थे। 1984 का ज़िक्र इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा के टिकट से पहली बार सीतामढ़ी लोकसभा में राम कृपाल सिंह लड़े थे और 8 प्रतिशत मत के साथ पाँचवें नंबर पर रहे थे। आगे राम मंदिर और मंडल आयोग, दोनों की कहानी की शुरुआत होने वाली थी। 1984-1989 कांग्रेस राजीव गांधी के नेतृत्व में जिस प्रचंड बहुमत से इंदिरा गांधी के हत्या के कारण उत्पन्न संवेदना के वोट से सरकार में आये थे, उतनी तीव्र गति से अपने काम काज को आगे नहीं ले जा सके। शाह बानो, बोफ़ोर्स और भोपाल गैस कांड ने राजीव सरकार को बहुत बड़ा नुक़सान पहुँचाया। वी पी सिंह के नेतृत्व में जनता दल चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी, सीतामढ़ी फिर से एक बाहरी बड़े नेता हुकुमदेव नारायण यादव को लोकसभा पहुँचाने का रास्ता बना और समय दर समय सीतामढ़ी को अपना सांसद ना मिलने का मलाल बना रहा। लोगों को लहर के साथ जाने में कोई परेशानी नहीं थी, पार्टी को देखकर हमेशा वोट डाले गये, उम्मीदवारों की महत्ता कभी इस लोकसभा में नहीं देखी गयी। हुकुम देव नारायण यादव कपड़ा मंत्री भी बने, मगर बीच मझदार में ही जानता दल का साथ छोड़ समाजवादी जानता पार्टी (राष्ट्रीय) में शामिल हो गये।
हुकुम देव नारायण यादव।
हुकुमदेव नारायण यादव बस २ वर्षों तक ही लोकसभा में सीतामढ़ी के नेता के रूप में रहे, भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से बनी सरकार सबसे पहले आडवाणी की कि रथयात्रा में लालू यादव जी के कार्यवायी के कारण अपना समर्थन वापस ले ली, और फिर वी पी सिंह के बाद चंद्रशेखर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने। एक साल तक इस सरकार को खिचा गया, मगर 1991 में देश को मजबूरन फिर से लोकसभा चुनाव में जाना पड़ा। 1991 में जनता दल से नवल किशोर राय को टिकट मिला, हुकुम देव नारायण यादव जब सीतामढ़ी नामांकन में पहुँचे तो लोगों ने उनके कपड़े फाड़ दिये। लोगों का नारा था ” जब जनता का जोश जागा, भारत का वस्त्र मंत्री, निर्वस्त्र होके भागा”। भाजपा ने भी अपना उम्मीदवार उतारा, राम मंदिर और आडवाणी जी की रथ यात्रा का असर माँ सीता की जन्मभूमि पर नहीं पड़ी। नवल किशोर राय 50% से ज्यादा वोट लेकर एकतरफ़ा लड़ाई जीत गये, भाजपा तो अपना ज़मानत भी नहीं बचा पायी। उम्मीदवार के चयन में अब मण्डल आयोग के रिपोर्ट का असर देखा जा सकता था। जातिगत जनगणना की वर्तमान स्तिथि में इस बात का ज़िक्र महत्वपूर्ण है कि राम मंदिर आंदोलन की शुरुआत के बावजूद एक ब्राह्मण उम्मीदवार अपना ज़मानत नहीं बचा पाये थे। नरसिम्हा राव के नेतृत्व में अल्पमत की सरकार बनी, सीतामढ़ी के प्रति अनदेखापन अगले 5 वर्षों के लिए अग्रेषित हो गया।
नवल किशोर राय
1992 सीतामढ़ी के काले इतिहास का गवाह बना, आज़ादी के बाद 5वीं बार सीतामढ़ी धार्मिक उन्माद में जला था। बाबरी मस्जिद को ढाहा जा चुका था, इसका पूरा असर आगामी 1996 के चुनाव पर होना तय था। पाँच साल तक बड़े मशक़्क़त से नरसिम्हा राव की सरकार चली। चुनाव राम मंदिर, बाबरी मस्जिद के इर्द गिर्द घूमने के बावजूद नवल किशोर राय तक़रीबन 80000 मतों से कांग्रेस प्रत्यासी अनवारूल हक़ को हराने में सफल हुए। भाजपा से उमा शंकर गुप्ता 150000 मतों के साथ तीसरे नंबर पर रहे। इस चुनाव ने जाती और धार्मिक समीकरण का एक रूप सीतामढ़ी के भविष्य के लिए निर्धारित कर दिया।
1996 से 1999 का समयकाल भारतीय राजनीति के लिए बहुत ही उठा पटक से भड़ा रहा। अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन के लिए पहली बार प्रधान मंत्री बने। फिर देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल। बिहार में चारा घोटाला हो चुका था, हवाला घोटाले में सभी पार्टी के लोग फँस चुके थे। आगे भाग- २ में।